Saturday, January 16, 2010

मेरी पसंद---- गाँव से गया था -गाँव से भागा------


स्वर्गीय कैलाश गौतम जी इलाहाबाद ही नहीं अपितु पूरे देश के विख्यात कवि थे ,उनकी रचनाये अपनी मिटटी से जुडी हुई होती थी.इस रचना में गांव की बदहाली और उनमें आये परिवर्तन के कारणों के बारे में कवि का चिंतन देखिये-

गाँव गया था
गाँव से भागा
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा जुनून देखकर
गंजे को नाखून देखकर
उजबक अफलातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

स्वर्गीय कैलाश गौतम




12 comments:

  1. सुंदर बहुत सुंदर. यथार्थ को बांटती है यह कविता.

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  2. .जितनी सुन्दर है यह कविता उससे भी सुन्दर कैलाश जी के मुंह से लगती थी ...आपने तो अपनी पसंद का पिटारा ही खोल दिया है -अब मुक्त हस्त/ह्रदय रचनाओं को बाटती रहिये ...

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  3. प्रिय तनु,
    बहुत सुन्दर कविता पढवा दी..
    आज के परिपेक्ष में अपनी सार्थकता लिए हुए यह कविता कितनी कठोर सच्चाई उकेर रही है ....ये कहने की बात नहीं...
    तुम्हारा धन्यवाद....और कवि श्री कैलाश जी को नमन ....
    didi..

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  4. तनु जी !
    आपन तौ सम्बन्ध खालिस गांव से अहै ..
    हुजूर की कविता 'अमौसा का मेला' आज भी यादों में आती रहती है ..
    इस कविता से पुनः गुजरा , आभार आपको ,,,

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  5. एक बार यह कविता मेरे एक कवी मित्र ने आधी-अधूरी सुनाई थी.
    तभी से इसे पूरा पढ़ने कि इच्छा थी. आपने मेरी वह इच्छा पूर्ण की इसके लिए आपका आभारी हूँ.

    इतने सरल शब्दों में इतना बेहतरीन कटाक्ष, कम ही देखने को मिलता है. मेरी नजर में वही कविता अधिक सार्थक है जिसे आमजन समझ सकें.

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  6. यह रचना उनके मुख से बड़ी भाती थी और मैनें कई बार सुना है..याद ताजा करने के लिये धन्यवाद...

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  7. क्या बात है.....आज भी सही है...इसी को कहते हैं कालजची रचना...

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  8. आम आदमी तक अपनी पहुँच कायम करने वाली..
    मनमोहक रचना । सच और सरलता का अनोखा समन्वय !

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  9. आप कहाँ खो गईं? 5 महीने और कोई पोस्ट नहीं ??

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