स्नेह-निर्झर बह गया है!
रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-"
जीवन दह गया है।
दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-
ठाट जीवन का वही
जो ढह गया है।
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही
कवि कह गया है।
___________(सूर्य कान्त त्रिपाठी (निराला)
कविता के साथ चित्र और शुरू की कुछ पंक्तिया पढ़ा तो लगा कि कही गलत पता तो नहीं है ब्लॉग का ...फिर देखा ये तो निराला जी की कविता है ...दरअसल मुझे हिमांशु के सच्चा शरणम् ब्लॉग जैसा ही लगा ....इस पोस्ट को देखें... http://ramyantar.blogspot.com/2009/12/blog-post_30.html
ReplyDeleteइसकी साम्यता पर आपको खुद आश्चर्य होगा ....!!
मेरी प्रिय कविताओं में से एक -आभार !
ReplyDeleteइस कविता में मैं हमेशा इस पंक्ति पर रुक जाता हूँ,
ReplyDelete"बह रही है हृदय पर केवल अमा;"
अमावस्या से निराला जी कुछ अधिक ही लगावट रखते थे। राम की शक्तिपूजा का यह प्रयोग देखिए,
"है अमानिशा गगन घन उगलता अन्धकार
खो रहा दिशा का ज्ञान ..."
उस लम्बी कविता के बिम्ब रोंगटे खड़े कर जाते हैं।
आपकी चयन - दृष्टि की तारीफ़ करता हूँ ,,,
ReplyDeleteनिराला जी की इस कविता और उनके अंतिम
दिनों की कविता '' पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है ''को
सामानांतर रख कर पढने पर यह कविता और खींचती है ..
निर्वेद - भाव की एस कविता को भी प्रस्तुत करें अगर 'चयन' में मुफीद बैठे तभी !
कविता अपने 'कंटेंट' में भक्त कवियों की याद दिलाने लगती है , पर शिल्प का नयापन
एक नयी उर्जा देता है ..
......... आभार ,,,